गुरुवार, 3 नवंबर 2016

बातों बातों में



श्याम सुशील बातों बातों में मुझे बहुत पीछे खींच ले गए . और एकाएक मैंने खुद को अपने बचपन की गलियों में घूमते हुए पाया.फिर वहां से यहाँ तक लौटने में देर तो होनी ही थी. बहुत कुछ भूला बिसरा देखा—सुना उसे मैं आपके साथ बांटना चाहता हूँ. आईये शामिल हो जाईये.   



* क्या आपका बचपन 'खटमिठ चूरन' जैसा ही था या पुरानी दिल्ली की हवा से कुछ हटकर था?
    
==होना तो चाहिए था पर हुआ नहीं. पिता की मृत्यु मेरे एक वर्ष का होने से पहले ही हो गयी थी.और जब मैं चार साल का भी नहीं था तो माँ की दूसरी शादी कर दी गई. दूसरा पति पांच बच्चों का विधुर पिता था. वह उम्र में माँ से काफी बड़ा था. उसकी बेटी मेरी माँ की उम्र की थी. माँ मुझे पढ़ा लिखा कर बड़ा करना चाहती थी. उनकी न सुनी गई. वह नए घर में जाकर पांच बच्चों की विमाता बनने पर विवश हुईं पर मुझे साथ नहीं ले जा सकीं . कहते हैं मेरे पिता को किसी ने विष दे दिया था. कैसा संयोग था—देहरादून में मेरे नाना की मौत भी इसी तरह हुई थी. संपत्ति विवाद के चलते किसी ने उन्हें विष दे दिया था. और जब मेरी नानी मेरी माँ को लेकर दिल्ली आईं तो माँ एक वर्ष की थीं.
       जब तक मैं कुछ समझने लायक नहीं हुआ मैं माँ को इस तरह मुझे छोड़ कर चले जाने का दोषी मानता रहा. वह वर्ष में एक सप्ताह के लिए नानी के पास आया करती थीं .तब मैं उनकी छाया से दूर भागता था.और वह रोती हुई मुझे गोद में भरने की कोशिश करती रहती थीं. मैं टूटे पत्ते जैसा हो गया था. कोई मुझे राह दिखाने वाला नहीं था.यही बड़ा कारण था कि मैं नियमित पढ़ाई नहीं कर सका.  समय बीतने के साथ धीरे-धीरे यह समझ में आया – माँ का दोष यही था कि वह एक औरत थीं, उनका अपना कोई अधिकार नहीं था.
      एक बात और पता चली थी. पास की गली में राघव रहते थे . वह जहाँ भी मिलते प्यार करने लगते. मैंने नानी को उनके बारे में बताया तो उन्होंने कहा कि राघव से कभी मत मिलना . वह बहुत बुरा आदमी है. उनका गुस्सा मेरी समझ में नहीं आया. एक दिन पता चला कि राघव घायल हो गए हैं. मैं नानी से छिप कर उनसे मिलने चला गया. उन्होंने मुझे माँ का फोटो दिखाया . बताया कि वह माँ से शादी करना चाहते थे. उन्होंने मुझे भी अपनाने की बात कही थी. लेकिन उनकी बात नहीं मानी गई. हमारे घर में उनके आने पर रोक लगा दी गई. बाद में मैंने नानी से पूछा तो रोने लगीं
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 . जीवन भर मैं यह पहेली कभी नहीं हल कर सका कि आखिर नानी ने ऐसा क्यों किया था! आज माँ और नानी दोनों नहीं हैं. और मैं यहाँ खड़ा हूँ.  
               

* 'छुट्टी का स्कूल' जैसी मजेदार कविता रचने वाले देवेन्द्र जी को बचपन में स्कूल जाना कैसा लगता था? घर-स्कूल और आस-पड़ोस में पढ़ाई-लिखाई का माहौल कैसा था?

==बहुत बुरा लगता था. गणित के मास्टर जी बहुत पिटाई करते थे. मैं बचने के लिए स्कूल जाता ही न था. घर के पास एक अनाथालय था. उसमें एक लाइब्रेरी थी. वहाँ मैंने किसी को आते नहीं देखा था. मुझे उन पुरानी किताबों के बीच छिप कर बैठना पसंद था. उन्हें पढना अच्छा लगता था,आस पास बच्चे पढ़ते थे पर मैं नहीं. मेरी पढाई स्कूली पढ़ाई से अलग थी.

* बचपन के वे कौन से लोग हैं (माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी, अन्य रिश्तेदार, दोस्त, टीचर आदि) या कौन सी बातें हैं जिन्होंने आपके जीवन और रचना-जगत को समृद्ध किया है?
==आपके प्रथम प्रश्न के उत्तर में वह सब आ गया है. मेरे अकेले पन में पुस्तकें ही मेरी दोस्त बनीं. आगे चल कर उन किताबों ने ही मुझे लिखने की प्रेरणा दी. हमारे मकान की ऊपरी मंजिल में बूढ़े बारू मल रहते थे. गर्मियों की रातों में तारों भरे खुले आकाश के नीचे बैठ कर वह अद्भुत कहानियां सुनाया करते थे, तब मन जैसे उड़ने लगता था. उनकी कहानियों में  ऐसे पात्र होते थे जिनसे आज आज तक भेंट नहीं हुई—परियां,बौने, कदम –कदम पर जादू  और चमत्कार .कभी- कभी वह मुझसे कहते—आज तू कहानी सुना. तब मैं किताबों में पढ़ी कहानियां कुछ जोड़-घटा कर सुना देता था. वह हंस कर कहते –‘ आगे चल कर तू भी कहानीकार बन जाएगा शायद.  उनका कहा हुआ ‘ शायद’ अभी तक मेरे लेखन के साथ एक आशीर्वाद की तरह लगा हुआ है.  नानी ने मुझे कभी कोई कहानी नहीं सुनाई. उनका और माँ का जीवन एक सांझी दुःख कथा जैसा था. उसी को वह टुकडो –टुकड़ों में जब –तब सुनाया करती थीं. सुनाते हुए वह आंसू पोंछती रहती थीं. 

* आपके लेखन की शुरुआत कैसे हुई? कविता, कहानी या वो कौन सी रचना है जिसे आप अपनी पहली लिखी हुई या प्रकाशित रचना कह सकते हैं?
==यह कहना कठिन है. बचपन के दिनों में एक छोटी डायरी जेब में रखता था. कुछ लिखता भी था.शायद गीत.पर वे कभी छपे नहीं.
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* आपने बाल साहित्य में लगभग सभी विधाओं में लिखा है और लीक से हटकर लिखा है। बाल कहानियाँ, उपन्यास, कविताएँ, नाटक सब कुछ आपने लिखा और जमकर लिखा। औरों से अलग आपने अपनी लकीर बनाई। पर बाल साहित्य की कौन सी विधा है, जिसके साथ आप बड़ा सहज अपनापा महसूस करते हैं?... और फिर एक सवाल यह भी कि किन कारणों से बाल साहित्य की कोई विधा लेखक को एकदम अपनी विधा लगने लगती है?
==विधा कोई फ्रेम या खांचा नहीं बनाती.पानी कहीं भी रहे वह पानी ही है. हाँ जब सूत्र मन में कौंधता है उसी समय यह निश्चित होता है कि क्या और कैसे लिखना है. मैंने नाटक कम लिखे हैं.पहले नंबर पर कहानी है, फिर बाल गीत और उपन्यास. वैसे कहांनी तो सबमें होती है . हर रचना एक बिम्ब को उभरने देती है कोई छोटा तो कोई बड़ा. किस रचनाकार को कौन सी विधा ज्यादा प्रिय है, यह चुनाव उसका अपना होता है.

* क्या आपको लगता है कि जितना प्रचुर आपने लिखा है, उसे समझने वाले पाठक और आलोचक भी आपको मिले, जिन्होंने उसे पूरी व्यापकता, गहराई और हार्दिकता के साथ समझा?
==पाठकों- समीक्षकों से सीधा संवाद कम ही होता है.पाठक नासमझ नहीं होते, वे जिन रचनाओं को अपने निकट पाते हैं उन्हें याद रखते हैं. मैं लिखता हूँ और पाठक पढ़ते हैं – यही बड़ी बात है. समस्या बाल साहित्य से जुडी है. प्रकाशन एक व्यवसाय है और उसकी प्राथमिकताओं में बाल साहित्य बहुत नीचे आता है. लोग भी बाल साहित्य को बच्चों का काम समझते हैं. अख़बारों ने बच्चों का पेज गायब कर दिया है. लेकिन नेट के कारण इधर हालत कुछ बदली है.इसमें रचनाकार को लिखते ही तुरत स्वप्रकाशन की सुविधा मिल गई है.लेकिन इस सुविधा के कुछ खतरे भी हैं.प्रकाशन और रचना के बीच संपादक की भूमिका रहनी चाहिए.                     
* बच्चों के लिए लिखी गई आपकी ऐसी कौन सी कहानियाँ, उपन्यास और कविताएँ हैं, जिन्हें लिखने के बाद आपने कहीं अधिक सुख और रचनात्मक तृप्ति महसूस की?
==आपका प्रश्न मेरे सारे लेखन को अपने अंदर समेटने में समर्थ है.वैसे तो अपनी हर रचना अच्छी लगती है लेकिन मेरे लम्बे सम्पादकीय अनुभव ने मुझे संयम सिखाया है, जब कोई घटना मन को छूती है तो कलम में स्पंदन होता है . कुछ कहानियाँ और बाल गीत बेहतर हैं पर मैं कमजोर रचनाओं  को अकेला नहीं छोड़ सकता. कुछ रचनाओं के नाम ले सकता हूँ
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—जैसे ‘डाक्टर रिक्शा’  जिसमें एक रिक्शावाला मरीजों को डाक्टर के दवाखाने तक पहुँचाने को ही अपना सबसे बड़ा काम मान लेता है. ‘ अध्यापक’ में एक छात्र एक जेब कतरे को अपना पुराना अध्यापक समझ बैठता है. और जेब कतरा सोचता है—काश ऐसा ही होता.’ चिडिया और चिमनी ‘उपन्यास मुझे प्रिय है.हिन्दुस्तान टाइम्स जाते हुए हमारी बस बिजली घर के सामने से गुजरती थी. उसकी ऊँची चिमनी से निकलते धुंए में उड़ते परिंदों को देख  कर मन में आया –अगर धुंए से परिंदे का गला खराब हो जाए तो... और उसी से उपन्यास लिखा गया.बस यों समझ लीजिये कि मेरी हर रचना के पीछे एक कहानी खड़ी है.

* क्या आपको अपने लंबे सृजन में कुछ ऐसी रचनाएँ भी नजर आती हैं, जो आपके खयाल से हल्की हैं और आप उन्हें अस्वीकार करना चाहते हों?
==कमज़ोर रचनाओं को मैं पहचानता हूँ लेकिन जैसा मैं पहले कह चुका हूँ उन्हें मैं अस्वीकार कभी नहीं करूँगा. रचना कोई भी हो वह लेखक का विस्तार ही करती है. रचना कार सबसे पहले अपने से सीखता है.

* नंदन के दौर में लिखी गई आपकी कहानियों और वर्तमान दौर की कहानियों में एक बड़ा फर्क नजर आता है। ऐसा लगता है कि तब आप कुछ जकड़न, कुछ बंधन में लिख रहे थे और अब आपकी कलम आजाद हुई है और आप वह लिखना चाहते हैं, जिसके पीछे कहानियों का कोई बना-बनाया फ्रेम नहीं, बल्कि आपके भीतर की सच्ची और गहरी उधेड़-बुन है, जो जाने-अजाने खुद ही आपकी कहानियों में उतर आती है?
==आपने ठीक कहा. ‘नंदन’ में अपने २७ वर्षों के कार्यकाल के दौर में मैं एक तरह के कृत्रिम रचना कर्म से गुजर रहा था.यह बहुत लम्बा समय था. इसे इस तरह कह सकता हूँ ‘नंदन’ से पहले , ‘नन्दन’ के कार्यकाल के दौरान और ‘नंदन’ से मुक्त होने के बाद.’नंदन’ से पहले और ‘नंदन’ के बाद के रचना कर्म को मैं आपस में जोड़ सकता हूँ. ‘नंदन’ के कार्य काल को मैं अलग रखता हूँ. वह नौकरी का दौर था.
 तब लिखीं कहानियों पर आप वह प्रभाव देख सकते हैं. वहाँ लिखने और सम्पादन की नौकरी करता था. पहले से तय हो जाता था कि क्या लिखना है.हर अंक में परी तत्व के साथ लोक कथा और पौराणिक आख्यान का संतुलन रखना होता था. यह पत्रिका की सुनिश्चित नीति थी. हमें उसी के अनुरूप सामग्री तैयार करनी होती थी. सारा दिन इसी में बीत जाता था. वे जीवन से जुडी सहज
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कथाएं नहीं थीं तो फिर वह लेखन मौलिक कैसे हो सकता था. मैं पूरी तरह लोक कथाकार बन जाता अगर ‘ विश्व की महान कृतियाँ’ मेरे साथ न होतीं. यह एक नियमित स्तम्भ था. हर अंक में विश्व साहित्य की एक श्रेष्ठ पुस्तक का सार संक्षेप प्रस्तुत करना होता था. उसका उद्देश्य था देश के कोने कोने में मौजूद ‘नंदन’ के पाठकों को विश्व के श्रेष्ठ साहित्य की झलक दिखलाना. लाइब्रेरियों में  जाकर पुस्तकों का चुनाव करना और फिर उसकी कहानी सम्पादकजी को सुना कर उनकी स्वीकृति लेने के बाद असली काम शुरू होता था. पुस्तक चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हो. उसका सार१५०० शब्दों में ही करना होता था.
   शुरू में कठिनाई हुई पर फिर इसमें आनंद आने लगा. ‘नंदन’ की इमारत में मेरे लिए एक नई  खिड़की खुल गई थी जहाँ खड़े होकर मैं पूरी दुनिया देख सकता था. मैंने लगभग ३०० पुस्तकों का सार संक्षेप किया. इस क्रम में कहीं ज्यादा पुस्तकें पढ़ी गईं, विश्व साहित्य के महासागर में तैरने के खूब अवसर मिले.
 इसी दौर में विश्व बाल साहित्य से गहरा परिचय हुआ. सभी देशों के क्लासिक बाल साहित्य में लोक कथाओं की भरमार है. उन्हें प्रस्तुत करने वालों में हैंस क्रिश्चियन एंडरसन तथा आस्कर वाइल्ड ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया.और ‘नंदन’ में लोक कथाओं के ट्रीटमेंट की नई राह भी दिखलाई. ज्यादातर यूरोपीय लोक कथाएँ लम्बी और बोझिल हैं. एन्डरसन और आस्कर वाइल्ड ने मुझे बताया कि किस तरह परी तत्व से बोझिल लोक कथाओं को रचनात्मक हस्तक्षेप से, मानवीय संवेदना से ओतप्रोत, भाव प्रधान सामाजिक सरोकार वाली रचना में बदला जा सकता है. फिर तो मुझे एक नई राह मिल गयी.  आस्कर वाइल्ड की कहानी ‘ द सेल्फिश जायंट ‘ और एन्डरसन की ‘ द लिटिल मैच गर्ल’, द मरमेड ‘  कुछ ऐसी ही कहानियाँ हैं. तब से मेरे द्वारा सम्पादित कथाओं का बाहरी स्वरुप वही रहा लेकिन परियों का जादू कुछ कम हो गया, तो दूसरी ओर अब तक परदे के पीछे रहे अति साधारण पात्रों के चेहरे चमक उठे. मेरे इस कर्म से किसी को कोई तकलीफ नहीं थी. जादू और चमत्कार की कहानियों के बीच रह कर काम करते हुए अब मैं खुल कर सांस ले पा रहा था. यह एक महत्वपूर्ण मोड़ था जिसने मुझे नई दिशा दिखाई. जिन अति साधारण, भूले हुए या जानबूझ कर नेपथ्य में धकेल दिए गए पात्रों से मेरा नया परिचय हुआ था, उनसे मेरा जुड़ाव सदा के लिए हो गया था, यही आगे चल कर मेरी नई मौलिक रचनाओं का आधार बनने जा रहे थे.   

* बच्चों के लिए कहानियाँ लिखते-लिखते आप उपन्यास कैसे लिखने लग गए? आपको उपन्यास लिखने में ज्यादा आनंद आता है या कहानियाँ लिखने में...?
==आपके इस प्रश्न का उत्तर भी ‘नंदन’ के कार्य काल से जुडा  है. एक बाल पत्रिका में काम करते हुए यह नैतिक दायित्व था कि मैं किसी अन्य बाल पत्रिका के लिए न लिखूं. इसीलिए
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‘नंदन’ में आते ही सबसे पहले ‘पराग’ में स्वीकृत रचनाओं को प्रकाशित न करने का अनुरोध किया,अब मुझे केवल ‘नंदन’ के लिए लिखना था. अपने मन से नहीं, पत्रिका की नीति के अनुरूप सामग्री तैयार करनी थी. ऐसे में घुटन तो होनी ही थी. मेरी कहानियां मेरे अन्दर बंद होकर रह गई थीं. मैं निकास का मार्ग खोज रहा था. तभी उपन्यास लिखने का विचार आया. उस पर तो कोई बंधन नहीं था, मेरे अधिकतर बाल उपन्यास ‘नंदन ‘ के कार्य काल में लिखे गए हैं , प्रकाशित और पुरस्कृत हुए हैं. मेरे लिए यह उन्मुक्ति थी. कथा सूत्र के स्तर पर कहानी और उपन्यास में ज्यादा अंतर नहीं होता. जहां कथा में विस्तार की सम्भावना दिखाई देती है वहीँ दोनों का फलक अलग हो जाता है. हर रचना आनंद देती है. हाँ उपन्यास में यह  ज्यादा देर तक बना रहता है.
* आपकी बाल कविताओं की एक खासियत यह है कि वे बिल्कुल उसी भाषा में लिखी गई हैं, जिसे बच्चे बोलते हैं। बल्कि कहा जाए, जिसमें बच्चे हँसते-बोलते, रूठते, लड़ते-झगड़ते और जिदें करते हैं।...और इतना ही नहीं, उसमें बच्चों की उपस्थिति बड़े ही प्रमुख रूप में है। लगता है, बाल कविताओं के जरिए आप बच्चों और उनकी दुनिया से दोस्ती करना चाहते हैं..? भला इसमें कितनी सफलता आपको मिली, और कितनी असंतुष्टि...?
  == बच्चों से उन्हीं की भाषा और भाव में संवाद किया जाए तो बहुत आनंद आता है. तब  आकाश और जंगल की याद नहीं आती. बच्चों के बहाने से अपना भूला बचपन याद आ जाता है. मेरे बाल गीतों में माँ –पिता और घर का परिवेश मुखर हो जाता है. पहले बच्चे माँ को रसोई में तथा घर के कामों में लगी देखते थे. मेरे गीतों की उर्वर भूमि वही है. आपने मेरे अनेक बाल गीत ‘दैनिक हिन्दुस्तान ‘में बड़े सम्मान के साथ प्रकाशित किये थे. मेरे गीतों में बच्चे घर के परिवेश में माँ-पिता के साथ उछलते-कूदते मिलते हैं. उसी खिलंदड पन में हज़ारों बाल गीत मुस्कराते हैं. अपनी सफलता- असफलता का हिसाब कभी रखा नहीं.बच्चों बिना कैसे बाल गीत.बच्चों से मेरी दोस्ती तो मेरा स्थाई भाव है.

* स्कूल-कॉलेज के दिनों में किन लेखकों की रचनाएँ आपके दिल को छूती थीं या लगता था आपके मन की बात इन रचनाओं में अभिव्यक्त हो रही हैं? बाद में किन लेखकों ने आपको सर्वाधिक प्रभावित किया ?
==स्कूल पूरा नहीं किया ,कालिज कभी गया नहीं,हाँ पुस्तकें जरूर शुरू से ही मेरे अकेले बचपन की मित्र बन गई थीं . सारा दिन मैं किताबों के साथ रहता था. शुरू में पता नहीं था कि क्या पढ़ रहा हूँ. बाद में एक दिन लाइब्रेरी  में खोया –खोया खड़ा था तो किसी ने प्रेमचंद की पुस्तक थमा दी. कहा--.’ ये बड़े लेखक हैं.’ फिर खोज कर पढने लगा.धीरे धीरे दूसरे लेखकों का परिचय मिला.प्रिय रचनाकारों में प्रेमचंद,गुरुदेव, शरतचंद्र,बंकिम,विभूति भूषण वन्दोपाध्याय ,यशपाल ,देवकी नंदन खत्री आदि अनेक हैं. सबके नाम लेना संभव नहीं.बाद में  ‘नंदन’ के कार्य काल में विश्व साहित्य के महान रचनाकारों का परिचय मिला. चार्ल्स डिकन्स,ताल्स्तॉय, शेक्सपियर,मार्क ट्वेन, अर्नेस्ट हेमिंग्वे आदि. फिर विश्व बाल साहित्य के कई महान लेखकों का साहित्य पढ़ा. इनमें हैंस एन्डरसन,ग्रिम बंधु, आस्कर वाइल्ड  (कहानियो के लिए),योहान्ना स्पायरी, फ्रैंक बौम, कारलो कोलोदी ,जेम्स ऍम बैरी,एना सीवेल,जेम्स ओटिस आदि अपने उपन्यासों के लिए . ये सूची बहुत बड़ी है. सबके नाम गिनाना संभव नहीं. मैंने सभी से प्रेरणा ली है.  


* अपने विवाह और पारिवारिक जीवन के बारे में कुछ बताएँ। लेखन, नौकरी और पारिवारिक जीवन, इन सबके बीच क्या कभी तीव्र और असह्य तनाव उभरकर आया, जिसने आपको अशांत कर दिया हो?

==एक दिन मेरी रिश्ते की भाभी ने अपनी बेटी का हाथ थमा कर कहा—‘ पास की गली में  एक लड़की छोटे बच्चों का स्कूल चलाती है.इसे वहां दाखिल करवा दो.’ स्कूल एक धर्मशाला में चलता था.एक म्लान मुख किशोरी बच्चों को पढ़ा रही थी.नाम था सरला. फीस थी दो रुपये. फिर एक दिन सरला को अपने घर में देखा. वह भाभी की बेटी को घर पर पढ़ाने आने लगी थीं.
एक दिन कोई किताब खोज रहा था.नहीं मिली तो भाभी से पूछा. हंस कर बोलीं  --‘’ तुम्हारी मास्टरनी ले गई है.अब वह तुम्हारी ट्यूशन लेगी.’’ उनका मजाक कब और कैसे सच हो गया .आज याद नहीं है. जब विवाह हुआ तब ‘सरिता’ में नौकरी करता था,जो ज्यादा दिन नहीं चली. इसके बाद कई साप्ताहिक पत्रों में थोड़े थोड़े समय तक काम किया. आखिर तै किया कि फ्री लांसिंग करूँगा. मैं खुद को लेखक मानने लगा था. पर भ्रम टूटने में ज्यादा देर नहीं लगी.रचनाएं प्रकाशित कम होती थीं ,अस्वीकृत होकर लौटती अधिक थीं, जो छप  भी जाती थीं उनका पैसा बहुत देर से मिलता था. घर चलाने के लिए निश्चित राशि चाहिए थी, जिसका जुगाड़ मैं नहीं कर पा रहा था. पत्नी ने गली के एक स्कूल में पढ़ाना शुरू किया पर पैसे वहाँ से भी नहीं मिले. वह मुझे पूरा सहयोग कर रही थीं, एक बड़ा काम उन्होंने और किया –मुझसे मेरी असफलता को छिपाया. एक दिन मैं कुछ खोज रहा था.कि अल्मारी में
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 उनकी साडी के नीचे कुछ लिफाफे मिले. वे मेरी अस्वीकृत होकर लौटी रचनाएं थीं,पूछने पर पत्नी ने बताया कि वे मुझे निराशा से बचाना चाहती थीं. वह सोचती थीं कि जब कोई स्वीकृति पत्र आएगा तो उसके साथ ये अस्वीकृत रचनाएं मुझे दे देंगीं तब शायद कम चोट लगेगी. लेकिन अपनी बेबसी का यह नंगापन मुझसे सहन नहीं हुआ. मैंने वापस लौटी रचनाएं फाड़ कर फैंक दीं और न लिखने का फैसला कर लिया. उसी दिन मुझे ‘पराग’पत्रिका से ‘अध्यापक’ कहानी का स्वीकृति पत्र मिला. श्री आनंद प्रकाश जैन ने लिखा था –‘पराग’ के लिए और रचना भेजो.तुम इससे भी अच्छा लिख सकते हो.’ यह कोई बड़ी बात नहीं थी. लेकिन अवसाद के जिन पलों में उनका पत्र आया था, उसने मुझे हिम्मत दी .मुझे उबार लिया. इसके कुछ समय बाद मुझे हिन्दुस्तान टाइम्स में काम मिल गया. हालात में एक अच्छा बदलाव आ गया. परिवार के लिए यह तसल्ली देने वाला था.



* आदरणीया सरला भाभी जी का आपकी रचना-यात्रा में कितना और कैसा योगदान है?

==वैसा ही जैसा मैंने इससे पहले बताया है.उन्होंने केवल पत्र लिखे .वह मेरी प्रथम पाठक थीं और कभी कभी अपनी बेबाक राय से मुझे तिलमिला दिया करती थीं.


* नंदन से पहले लंबे अंतराल तक आपने फ्रीलांसिंग की और धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान समेत देश के प्रायः सभी चर्चित पत्र-पत्रिकाओं में छपे भी। उस दौर के अनुभव...? फ्रीलांसिंग को छोड़, फिर नौकरी करने की क्यों जरूरत पड़ी, जिसमें आपका लेखक स्वाधीन न रहकर, कुछ-कुछ दबाव में आ जाता है?

==आपके इस प्रश्न का उत्तर मैं पहले ही दे चुका हूँ. हम दोनों ने साथ  काम किया है. नौकरी के दबाव कितने मारक होते हैं यह आप अच्छी तरह जानते हैं .  


* आप सत्ताईस वर्ष तक बच्चों की बहुचर्चित पत्रिका 'नंदन' के सम्पादन से जुड़े रहे। अपने सृजनात्मक लेखन, अपनी रुचि, पसंद-नापसंद के साथ पत्रिका के अनुरूप रचनाओं के चुनाव और सम्पादन का अनुभव कैसा रहा? पत्रकारिता आपके लेखन में कितनी बाधक या साधक सिद्ध हुई?
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==नौकरी कुछ शर्तों के साथ करनी होती है. कई बार कुछ रचनाओं को लेकर सम्पादक से विवाद हुआ तो उन्होंने साफ़ बता दिया कि किसी ने मेरा हाथ नहीं पकड़ा हुआ है.एक घटना नई उप संपादिका से जुडी हुई है. उसे लेकर सम्पादक और जनरल मैंनेजर के साथ मेरा तनाव काफी बढ़ गया. मेरे कई भत्ते बंद कर दिए गए. अभी मेरे रिटायरमेंट में समय था. बेटी की शादी सिर पर थी. मैं गहरे तनाव में नौकरी करता रहा
‘नंदन’ में सम्पादकजी अपने मित्रों से जब कहानी लिखने को कहते तो वे कहानी मांगते .ऐसे लोगों को वह मेरे पास भेज देते.मुझे न सिर्फ उन्हें कहानी बतानी पड़ती, बल्कि वे जो कुछ लिख कर लाते उसे ठीक करके प्रकाशन लायक बनाने में सर खपाना पड़ता. यह सम्पादन के अन्य कामों से अलग होता था, जिसमें हर अंक में एक पुस्तक का सार संक्षेप भी शामिल था.
   एक घटना मजेदार है.सम्पादकजी किसी प्रमुख आदमी की कहानी छापना चाहते थे, मुझसे कहा गया कि मैं विस्तार से कथा सूत्र या सिनोप्सिस तैयार कर दूं. कथा सूत्र उस व्यक्ति को भेज दिया गया.कहानी आई और मैं स्तंभित रह गया. उस बड़े आदमी ने मेरे कथासूत्र को ही टाइप करवा कर भेज दिया था.मैंने सम्पादकजी को बताया तो बोले—‘अब उनसे तो कह नहीं सकते,तुम कहानी तैयार कर दो.’
   बाहर से आने वाली रचनाएं अक्सर ही बहुत लम्बी और कठिन शब्द विन्यास वाली होती थीं, कठिन शब्दों के रोड़े निकाल कर रचना को सरस’और पठनीय बनाना एक महत्वपूर्ण काम था.इसीलिए मैं ‘नंदन’ कार्यालय को कहानी का वर्कशॉप कहता था.
    पत्रकारिता को मैंने अपने मौलिक लेखन से अलग रखने का प्रयास किया. लेकिन वह प्रयास कितना  सफल रहा इसे आपने एक प्रश्न में खूब पकड़ा है.

* आपने 'पराग', 'नंदन', 'बाल भारती', 'मेला', 'चकमक', 'धर्मयुग', 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' जैसी पत्रिकाओं और बहुत से अखबारों के रविवारी में बाल साहित्य के प्रकाशन का भरा-पूरा जमाना देखा है। हिंदी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं की पत्रिकाएँ आप बराबर देखते-पढ़ते रहते हैं। तब की और आज की बाल पत्रिकारिता में आपको क्या फर्क नजर आता है? एक लेखक-पाठक की नजर से किन बाल पत्रिकाओं को आप महत्वपूर्ण मानते हैं? 
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    ==समय के साथ हर चीज बदलती है.बाल साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है.आपने ‘बाल पत्रकारिता’ कहा  है. हिंदी में बाल साहित्य तो है पर बाल पत्रकारिता नहीं है. पत्र—पत्रिकाओं में ज्यादातर कहानियां और कवितायें प्रकाशित होती हैं. पुस्तक समीक्षा और यदा कदा लेख छपते हैं. बच्चों को केंद्र में रखकर उनके सपनों और समस्याओं की निरंतर चर्चा कहाँ होती है?. यह प्रयोग आपने अपनी लघु पत्रिका के माध्यम से किया है. ऐसे प्रयोग और अधिक होने चाहियें. आखिर हम बड़े लोग इन्टरनेट के इस तेज दौर में बच्चों को केवल कल्पना कथा और सरस बाल गीत देकर ही क्यों संतुष्ट हो जाना चाहते हैं? ‘नंदन’ में हमसे कहा जाता था कि बाल –मन को चोट लगाने वाली कोई बात न लिखें. शिव काशी,भदोही, फिरोजाबाद , कूडा घरों और असख्य ढाबों में पिसते बचपन को हम अघाई आँखों से कब तक छिपाएंगे. मैंने अपनी रचनाओं में इन वंचित ,शोषित पात्रों को शामिल  किया है, लेकिन वह काफी नहीं है.  
  ‘नंदन’,’बाल भारती’,’चिल्ड्रेन्स वर्ल्ड’ नियमित निकल रहीं हैं, पर बच्चों को केंद्र में रख कर  नयाहोनाचाहिए.    .  
 
* बाल पत्रिकाओं में ऐसा क्या होना चाहिए जिससे बच्चे उसमें रुचि लें?

==कहना कठिन है. इन्टरनेट के इस युग में  बच्चे तेजी से भाग रहे हैं उनकी विविध रुचियों को समेटने वाली बाल पत्रिका कैसी हो इस पर गंभीर चर्चा होनी चाहिए.

* आपकी रचनाओं में समाज के उपेक्षित, वंचित पात्रों की उपस्थित बहुधा देखने को मिलती हैढाबे पर बर्तन माँजता या मजदूरी करता हुआ बच्चा, खिलौने-गुब्बारे बेचने वाला, घरों में अखबार डालने वाला या कोई भिखारी या रिक्शेवाला या 'सड़कों की महारानी' जो झाड़ू लेकर आती है और कूड़ा मार भगाती है।...ऐसे तमाम साधारण कामगार, गरीब और अनाथ पात्रों के सुख-दुःख को जीना और रचना में उन्हें जीवंत करना- कैसे कर पाते हैं यह सब कुछ? इन पात्रों का रचनाओं में आना क्या सहज ही सम्भव हुआ है या इसके पीछे कोई विशेष कारण या जीवन से जुड़ा कोई गहरा अनुभव है?
  ==‘नंदन’ में काम करते हुए इन उपेक्षित पात्रों से परिचय हुआ. हज़ारों परियों ने भी सच में इनके दुःख दूर नहीं किये. सर्दियों की रात में सड़क पर माचिस बेचने वाली छोटी सी लड़की की दुःख कथा मुझे अंदर तक झिंझोड़ गई. वह सुबह मरी हुई पाई जाती है. दुनिया की सारी  परियां उस समय शायद सो रहीं थी. उन्हें लज्जा आनी चाहिए. उसी समय मैंने मन बना लिया कि परियों की झूठी कथा नहीं लिखूंगा. इन वंचित, उपेक्षित पात्रों के साथ दोस्ती करूंगा.
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* आप तो कहानियों के कारखाने में काम कर चुके हैं। एक अच्छी कहानी आप किसे कहेंगे?

  ==हाँ मैं ‘नंदन’ को कहानियों का कारखाना कहता था. तैयार पत्रिका मिठाई की दूकान के शो केस में सजी मिठाई थी तो हमारा सम्पादकीय विभाग दूकान की चकाचौंध के पीछे वाला भण्डार, जहां हम लोग कहानियों के कच्चे माल से स्वादिष्ट कथा- मिठाई तैयार करने में  जुटे होते थे.काश किसी पाठक ने कभी हमारा हाल- बेहाल देखा होता.अच्छी कहानी की शर्त है कि उसके केंद्र में बच्चे हों.भाषा और शिल्प बाद में आते हैं.
  
* आपने बड़ों और बच्चों के लिए विश्व की अनेक महान साहित्यिक कृतियों का अनुवाद किया है और अब भी कर रहे हैं। अनुवाद कार्य से जुड़े कुछ अनुभव अपने पाठकों से साझा करना चाहेंगे?
==अनुवाद और रूपांतर दोनों किये हैं. अनुवाद की तुलना में रूपांतर इसलिए अधिक हैं कि पत्रिका के हर अंक के लिए एक करना अनिवार्य होता था. पहली बात है अनुवाद या रूपांतर के प्रति ईमानदारी.और अंग्रेजी और हिंदी पर अच्छी पकड़.कठिन मूल अभिव्यति को भी सरल बना कर प्रस्तुत करने की क्षमता.काम शुरू करने से पहले मैं मूल कृति को, जो अंग्रेजी  में होती थी ,मनोयोग से पढता था और हर कठिन शब्द की सूची बना लेता था.दूसरा चरण था शब्द कोश की मदद से उन शब्दों का अर्थ संधान.यह करते हुए हर वाक्य की अर्थ व्यापकता समझ आने लगती थी और आगे का काम आसान हो जाता था. राबर्टो कलासो की कृति ‘क’ का अनुवाद करते हुए मैंने साहित्य अकादेमी पुस्तकालय में पूरा एक वर्ष सन्दर्भों की खोज और जांच करते हुए लगाया था.मैं जानता हूँ कि आम तौर पर पाठक अंग्रेजी , हिंदी संस्करणों को साथ साथ रख कर नहीं पढ़ते लेकिन ईमानदारी और आत्मसंतोष की मांग है कि आप अपने काम के प्रति सच्चे रहें.

* विश्व बाल साहित्य के परिपेक्ष्य में आधुनिक भारतीय बाल साहित्य की क्या स्थिति है?
==दोनों की तुलना नहीं हो सकती. विदेशी भाषाओं में बाल साहित्य को गंभीरता से लिया जाता है. हमारे यहाँ लोक और पुराण कथाओं को बाल साहित्य के रूप में परोसा जाता है. पश्चिम के बाल साहित्य में ऐसा घालमेल नहीं है, विश्व बाल साहित्य पढ़ते हुए यह अंतर साफ़ दिखाई देता है. यूरोपीय भाषाओं में बच्चों और किशोरों के लिए बहुत अच्छे उपन्यास लिखे गए हैं जबकि हमारे यहाँ उपन्यास बहुत कम लिखे गए हैं. सत्तर के दशक में बाल पाकेट के दौर में उपन्यास काफी लिखे गए गए थे. लेकिन बाल पॉकेट बुक्स के अवसान से उपन्यास लेखन का दौर भी समाप्त हो गया. ऐसा क्यों हुआ इस पर हमें सोचना होगा. क्या इसके पीछे प्रकाशकीय गणित था? शायद था. बाल उपन्यास  लिखे जा सकते हैं लेकिन सरकारी खरीद की शर्तों में उपन्यास फिट नहीं बैठते.कोई नीति लेखन की धारा को किस सीमा तक  नियंत्रित या अवरुद्ध कर सकती है,यह तथ्य हमें चौंका देता है.
 
* पाँच दशकों से भी अधिक समय से आप बच्चों और बड़ों के लिए बराबर लिख रहे हैं। अनुवाद का काम भी खूब कर रहे हैं। इस सक्रियता का राज़ क्या है?
==अनुवाद अब नहीं कर रहा हूँ. बच्चों के लिए लिखने से पहले बड़ों के लिए खूब लिखा लेकिन अब मन पूरी  तरह बच्चों में रम गया है. उसमें आनंद आता है.इस सक्रियता के पीछे वही भाव है.
* अपनी कौन सी किताब आप को सर्वाधिक प्रिय है?

==‘अपने साथ’ क्योंकि उसमें मेरा बचपन अपने हर रंग में मौजूद है.

* आप के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी शक्ति क्या है और कमजोरी?

==कमजोरी है निरंतर फोकस न रख पाना. शक्ति का पता नहीं.

* बचपन में किस तरह के सपने देखते थे अपने बारे में?

==तब का एकमात्र सपना था माँ और मैं साथ साथ रहें. पर पूरा नहीं हुआ.
 
* 'अपने साथ' (उपन्यास) के 'दीबू' और 'जूही' के बारे में कुछ कहेंगे?

==राघव मुझे दीबू कह कर लिपटा लेते थे,माँ के लिए उनकी अधूरी ललक ने मुझे उनके साथ बहुत गहराई तक जोड़ दिया था.
जूही मुझे आगरा में जुबैदा के घर बीमार और अकेली मिली थी.शायद मैं बहुत थोड़ी देर उसके साथ पास बैठ पाया था. संगीत और नृत्य से गूंजते घर में उसका अकेलापन मुझे अपना लगा था. वह समय कितना पीछे चला गया. लेकिन उसकी म्लान उदास छवि मेरे मन
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में सदा के लिए बस गई है.


* जीवन में किन लोगों से विशेष रूप से प्रभावित रहे या आज भी हैं?

==माँ की याद और आप जैसे मित्रों से.
* आप के लिए दुनिया की सबसे बड़ी ख़ुशी क्या है
==बच्चे हँसते दिखाई दें .
* आप की जिंदगी में कोई ऐसी बात जिसका आपको अफ़सोस है?
==एक नहीं अनेक .मैं न सुखी हो सका न कर पाया.
* इस दुनिया में सबसे अच्छी चीज आप को क्या लगती है?
==माँ के बाद बच्चों का साथ.

* और सबसे बुरी चीज?
==कहना कठिन है.

* आप को सबसे ज्यादा प्यार किस पर आता है?
==लिखने के बाद पढ़ते हुए.

* किस बात पर रोना आता है?
==बचपन में आता था. अब सब कुछ अंदर समेट कर रखता हूँ.

* हँसी किस बात पर आती है?
==कोई एक बात हो तो कहूँ.

* आप के लिए धर्म क्या है?
==हम सब कैसे सुखी हों. क्योकि धरम यही नहीं होने देता.

* और ईश्वर...?
==वह कहाँ है पता नहीं .हमारे बीच तो नजर नहीं आता.

* पूजा-पाठ में विश्वास करने या न करने का कारण?
==बचपन में पूजा-पाठ के घरेलू संस्कार मिले थे. तब मैं खडाऊं पहन कर कनाट प्लेस जाया करता था. खूब पूजा-पाठ करता था.लेकिन पुस्तकों तथा आस पास के परिवेश ने बताया कि परंपरा में मिले संस्कारों से आगे भी देखना चाहिए.और फिर मेरी विचार यात्रा शुरू हो गई.  जो आज भी जारी है.

* क्या आप भाग्य को मानते हैं?
==नहीं.

* आज के समय का सबसे बड़ा आश्चर्य आप को क्या लगता है?
==आज कुछ भी हो सकता है.आश्चर्य नहीं.

* डर किससे लगता है?
==अपने आप से.
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* कोई अंतरंग मित्र, जिनसे मन की बात कह सकते हों?
==आप उनमें हैं.

* अगर आप लेखक नहीं होते तो क्या काम करना पसंद करते?
==लेखकों की नक़ल करता.
* आपके लिखने का तरीका क्या है?

==लिखने से पहले रचना मन में यात्रा करती है.अपने साथ कागज –रखना कभी नहीं भूलता.सबसे पहले सूत्र उसी कागज़ के टुकड़े पर उतरते हैं फिर मैं रचना के साथ चल देता हूँ. लिखना तुरंत नहीं होता. रचना जब पक जाती है तो मुझे कुरेदती है और फिर सफ़र शुरू हो जाता है.
* आज के बच्चों और बाल रचनाकारों से आप क्या कहना चाहेंगे?

==बच्चों से हर समय इतना कहा जा रहा है कि अपने लिए सिर्फ उनके साथ दोस्ती की कामना करता हूँ. लेखकों से क्या कहूं.
* आप के प्रिय लेखक?
==सभी को पढने की कोशिश करता हूँ. मैं कोई नाम नहीं लेना चाहता.कुछ नाम मैंने लिए भी हैं.
* आप की प्रिय पुस्तक?
किसी एक पुस्तक का नाम नहीं ले सकता
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* भोजन में क्या-क्या पसंद है?
घर का बना शाकाहारी भोजन.

* कौन सी मिठाई अच्छी लगती है?
==मैं दिल्लीवाल हूं, हमारी गली की बनी खुरचन.

* मनपसंद फल?
==लीची और आम
  * वृक्ष?
   ==नीम
* फूल?
==गुलाब
* जानवर?
आकाश मैं खुले पंखों से उड़ते परिंदे
* पक्षी?
==मोर ,लेकिन वह कम उड़ता है.
* नदी?
==यमुना. भले ही आज वह गन्दा नाला बन कर रह गई है.
 * आप का मनपसंद रंग?
   ==गुलाबी
* शहर?
==अपना शहर और माँ की नगरी
* गाँव?
==गाँव में कभी रहा नहीं.
* आप का प्रिय खेल?
==क्रिकेट.  पर बचपन में ही चश्मा लग जाने के कारण ज्यादा खेल नहीं पाया.

 * प्रिय खिलाड़ी?
  ==कपिल देव
* आप की मनपसंद फिल्में?
==कई हैं पर ‘मिर्च मसाला’ को कभी भूल नहीं पाया.
* प्रिय अभिनेता?
==दिलीप कुमार
* प्रिय अभिनेत्री?
==वैजयन्ती माला
* प्रिय फिल्म निर्देशक?
==विमल रॉय
* प्रिय संगीतकार?
==शंकर-जयकिशन
 * प्रिय गायक-गायिका?
  ==तलत और लता
* प्रिय नेता?
==जय प्रकाश नारायण
* आपका मनपसंद समाचार-पत्र?
==कोई नहीं क्योकि निष्पक्ष कोई नहीं
* आपका मनपसंद त्योहार?
==जब सब मिल जाएँ
* आपका प्रिय नशा?
==पढना और लिखना
* आप की नजर में सबसे बुरा काम?
==कोई नहीं
* आप की प्रिय प्रार्थना?
==परियो, सबसे पहले बच्चों को सुखी करो
* आप के लिए सबसे बड़ा सम्मान क्या है
==आप लिखें और पाठक आपसे बात करें
* एक बेहतर दुनिया की कल्पना आप किस रूप में करते हैं?
==अब तक कल्पना ही कर रहा हूँ ,

श्याम सुशील (09871282170)
ए- 13, दैनिक जनयुग अपार्टमेंट्स,
वसुंधरा एनक्लेव, दिल्ली-110096  
 Shyamsushil13@gmail.com